ज़िंदा कौमे पांच साल का इंतजार नहीं करती और जीवंत लोकतंत्र में जब सड़कें सूनी हो जाती है तो संसद आवारा हो जाती हैं।

डा राममनोहर लोहिया के समाज-परिवर्तन के सात स्वप्न थे, जिसे सप्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।
उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। डा राममनोहर लोहिया ने ही कहा था कि – *ज़िंदा कौमे पांच साल का इंतजार नहीं करती।* और जीवंत लोकतंत्र में – *”जब सड़कें सूनी हो जाती है तो संसद आवारा हो जाती हैं।”*
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।लेकिन सियासत को अब यह सब स्वतंत्रता के अमृतकाल में स्वतंत्र अभिव्यक्ति शायद पसंद नहीं। वह अन्नदाताओं को अपनी मांगों,समस्याओं के लिए सड़कों को बंद करने,सड़कों पर बड़े बड़े कील, गड्ढे,सीमेंट की दीवार, तार की घेरे बंदी ,आंसू गैस के गोले और न जाने क्या क्या नहीं किए गए। उन आंदोलनकारियों को देशद्रोही, आतंकवादी, आंदोलनजीवी इत्यादि विशेषण से विभूषित किया गया।यहीं से सवाल उठता है कि आज़ादी का अमृतकाल है, लोकतंत्र ,संविधान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है या तानाशाही सियासत है ? तब ऐसी परिस्थितियों में डा राममनोहर लोहिया बारंबार स्मृति पटल में आते हैं।उनकी विचारधारा और अधिक प्रबलता के साथ प्रासंगिक हो उठती है। उनके नारे बार बार दिलोदिमाग को झकझोर देती है।

डा राममनोहर लोहिया का सपना था एक ऐसा भारत का निर्माण हो जिसमे किसी भी प्रकार की विषमताएं न हो। हर व्यक्ति खुशहाल,समृद्ध,सुखी गौरव पूर्ण जीवन जी सके, शोषण,अन्याय रहित समानतापूर्ण बेहतर और खुशहाल राष्ट्र का निर्माण हो। इसके लिए उन्होंने सप्त क्रांति का सिद्धांत दिया। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ संघर्ष करने के पक्षपाती थे। वे सात क्रान्तियाँ थी-
1. नर-नारी की समानता के लिए।
2. चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरुद्ध।
3. संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के ख़िलाफ़ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए।
4. परदेसी ग़ुलामी के ख़िलाफ़ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए।
5. निजी पूँजी की विषमताओं के ख़िलाफ़ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए।
6. निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ और लोकतंत्री पद्धति के लिए।
7. अस्त्र-शस्त्र के ख़िलाफ़ और सत्याग्रह के लिये।

इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा –
*”मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियाँ संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करनी चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब* *नाइन्साफियों के ख़िलाफ़ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।”*
सप्त-क्रांति का उनका सपना अभी भी अधूरा है। जाति-भेद, रंग-भेद, लिंग-भेद, वर्ग-भेद, भाषा-भेद और शस्त्र-भेद रहित समाज का निर्माण करने की जरूरत है।
वर्तमान राजनीति में आदर्श, मर्यादा, सिद्धांत, सत्य, ईमान,मानवता, इंसानियत , राष्ट्र,लोकतंत्र ,संविधान और सबसे बड़ी बात विश्वनीयता का सबसे बड़ा सवाल खड़ा हुआ है।पूंजी हावी होती दिखाई पड़ रही है।पूंजी की हवस इंसान को हैवान बना देती है।इन परिस्थितियों में, स्वतंत्रता सेनानियों,महानायकों, विचारकों, चिंतको,समाजशास्त्रियों और आदर्श राजनतिज्ञों को पढ़ने,समझने,सीखने और उस पर अमल करते हुए बेहतर और खुशहाल राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने की जरूरत है।

गणेश कछवाहा
चिंतक, लेखक एवं समीक्षक
काशी धाम
रायगढ़, छत्तीसगढ़।
94255 72284
gp.kachhwaha@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *