फांसी के फंदों को चूमने वाले शहीदों के सपनों का आजाद देश कैसा होना चाहिए इसे बताते हुए भगतसिंह ने कहा था।

शहीदे आज़म भगत सिंह
(27 सितंबर 1907 – 23 मार्च 1931)

—————गणेश कछवाहा,रायगढ़———-

फांसी के फंदों को चूमने वाले शहीदों के सपनों का आजाद देश कैसा होना चाहिए इसे बताते हुए भगतसिंह ने कहा था;
*“स्वतंत्रता तब नहीं होती जब शासन गोरे आदमी से भूरे आदमी के पास चला जाता है। यह केवल सत्ता का हस्तांतरण है। वास्तविक स्वतंत्रता तब होती है जब भूमि पर काम करने वाला व्यक्ति भूखा नहीं सोता है, जो व्यक्ति कपड़ों को बुनता है वह नग्न नहीं रहता है और जो व्यक्ति घर बनाता है वह बेघर नहीं रहता है।”*
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*भगतसिंह की यह स्पष्ट समझ थी कि जब वे फाँसी के फंदे में चढ़ जाएँगे तो देश भर में एक ज़बरदस्त साम्राज्यवाद विरोधी लहर उठेगी और देश जल्द ही आज़ाद हो जायेगा। लेकिन इस ख़तरे से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ थे कि गोरे साहबों के स्थान पर उसी चरित्र के काले साहेब तो कब्जा नहीं कर लेंगे?इसी कारण वे समाज के मूलभूत व्यवस्था परिवर्तन के पक्ष थे। समाजवाद की स्थापना ही मूल मकसद था और इंकलाब जिंदाबाद मुख्य नारा था।*
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आज भी देश के हर नागरिक, चाहे वह युवा हो या बुजुर्ग, महिला हो या पुरुष ,चाहे वह किसी भी धर्म ,जाति ,सम्प्रदाय ,क्षेत्र व भाषा का हो सभी के हृदय में इंक़लाब या क्रांति का जोश और जज़्बा कोई पैदा करता है तो वह शहीद भगत सिंह की शहादत ही है। जब कुछ लोग माफ़ीनामा लिखकर काल कोठरी से मुक्ति का रास्ता चुन रहे थे उस वक़्त मात्र 23 वर्ष 05 माह और 26 दिन की युवा अवस्था में पूरे होशो हवाश, सूझबुझ और क्रांति का जज़्बा संजोए देश के लिए हंसते हंसते फाँसी का फंदा चूमने वाले नवजवान सरदार भगत सिंह ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन को नई ऊर्जा, दिशा और चेतना दे रहे थे , जो आज भी देशवासियों के लिए क्रांति, त्याग, बलिदान और शहादत के सर्वोच्च आदर्श व प्रेरणा का स्त्रोत है।

शहीद भगत सिंह पूरी वैचारिक, राजनैतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक चेतना के साथ स्वतंत्रता आंदोलन का मार्ग तय कर रहे थे। वे बहुत अध्ययनशील थे। एक तरफ ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता को सीधे आमने-सामने देख रहे थे तो दूसरी तरफ विषमताओं, जाति, धर्म, सम्प्रदाय में विभाजित होते समुदाय, अंधविश्वास, रूढ़िवादी आचरण व व्यवहार तथा कई काल्पनिक मान्यताओं में जकड़े भारतीय समाज की विसंगतियों पर भी उनकी पैनी नजर थी। बड़े बड़े क्रांतिकारियो के व्यक्तित्व व क्रांतिकारी पुस्तकों के गहरे अध्ययन ने उनकी समझ और सामाजिक राजनैतिक वैज्ञानिक चेतना को बहुत साफ और समृद्ध कर दिया था। भगत सिंह को आर्थिक- सामाजिक व क्रांतिकारी विषयों पर आधारित पुस्तकें पढ़ना बेहद पसंद था। चार्ल्स डिकेंस उनके प्रिय लेखकों में से एक थे। उन्होने “दस दिन जब दुनिया हिल उठी” (जॉनरीड), ’रशियन लोकतंत्र(रोपेशिन), ’प्रिन्सिपल ऑफ फ़ाइट’(मैक्सबिनी) आदि जेल में ही पढ़ी। विक्टर ह्यूगो के उपन्यास ‘ला मिज़रेबिल्स’ का नायक “वेले” भगत सिंह का प्रिय नायक था। जेल के अंदर भगतसिंह ने अपने अध्ययन के नोट्स तैयार किए थे जो आजकल नेहरू म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी, तीन मूर्ति में उपलब्ध है। उन्होंने कम्युनिष्ट घोषणापत्र, दास कैपिटल, साम्राज्यवाद:पूंजीवाद की चरमअवस्था, परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति, आदि पुस्तकों का अध्ययन किया और उन्हें आत्मसात करते हुए जीवन का आदर्श बनाया और अपने आन्दोलन की सही दिशा तय की। यह वैचारिक पक्ष भगत सिंह के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष था। जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की।

भगतसिंह की समाजवादी साहित्य में गहरी रुचि थी।अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर आधारित पुस्तकों का खूब अध्ययन किया। ”जब जेल के अधिकारियों ने काल कोठरी का दरवाज़ा खोलकर फाँसी होने की सूचना दी, तब उस समय वे महान क्रांतिकारी लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । बिना पलक उठाए बोले – “ ठहरो ! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।”
मार्क्सवाद – लेनिनवाद का अध्ययन और मनन उनके जीवन का एक प्रमुख हिस्सा हो गया था। जेल में उन्हें चिंतन मनन का अच्छा अवसर मिला। यही कारण था कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में हिंसा-अहिंसा, क्रांतिकारियों के कामकाज का तरीका, सोच-समझ, समकालीन राष्ट्रवादी, क्रांति, कला, साहित्य, धर्म, ईश्वर आदि विषयों को समाजवादी चिंतन और वैज्ञानिक चेतना की कसौटी पर कसते हुए क्रान्ति के आंदोलन को देश की आजादी के बाद के समाज के स्वरूप को कैसा होना चाहिए, इसके लक्ष्य से जोड़ा और क्रांतिकारियों के सामने एक स्पष्ट विचारधारा और लक्ष्य को प्रस्तुत किया।

भगत सिंह के पहले क्रांतिकारी आंदोलन के सामने न तो क्रांति की कोई वैज्ञानिक समझ थी और न ही भारत के भावी समाज के बारे में कोई स्पष्ट रूप रेखा थी। केवल एक ही लक्ष्य था देश की आज़ादी। भगत सिंह ने क्रांतिकारियों को ही नहीं देश की आवाम के सामने भी बहुत ही निडरता दृढ़ता और दूरदर्शिता के साथ समाजवाद को देश व आंदोलन के प्रमुख लक्ष्य के रूप में रखा।यह सवाल तर्कों के साथ रखा कि आज़ादी तो चाहिए परन्तु कैसी आज़ादी? आख़िर क्रांति का मकसद क्या होगा? भावी समाज (भारत) की रूपरेखा क्या होगी? सत्ता किस वर्ग के हाथ में होगी?, सत्ता में किस – किस वर्ग की क्या क्या भूमिका होगी? यही सवाल, तर्क और विचार ने भगत सिंह को सभी क्रांतिकारियों से हटकर एक अलग पहचान दी।

पूरे देश को एक सूत्र में जोड़कर क्रांतिकारी आन्दोलन को आगे बढ़ाना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। धर्म और संप्रदायिकता के खतरनाक जहर और उसके खतरे को समझ चुके थे। उन्होंने” मैं नास्तिक क्यों हूं?” एक विषद वृहत विश्लेषणात्मक और तथ्य परख लेख लिखा जो पुस्तक के रुप में प्रकाशित हुई। भगत सिंह का स्पष्ट मानना था कि;
*”धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे। जिसमें सिख बढ़ चढ़ कर फांसियो पर चढ़े और हिंदू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।”*-(भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज, आधार प्रकाशन पृ.152 – 155)

यह हमेशा स्मरण में रखना चाहिये कि कोई भी देश या इतिहास बर्बर, अत्याचारियों को कभी याद नहीं करता।क्रांतिकारियों और शहीदों को याद करता है। शहादत के 93 और जन्म के 117 वर्षों बाद भी देश के कोने कोने में भगत सिंह का नाम आज भी पूरी श्रद्धा व सम्मान के साथ लिया जाता है। जहां भी दमन,अत्याचार,अन्याय और शोषण होता है वहाँ भगत सिंह प्रेरणा व आदर्श बनकर लोगों को शक्ति और ऊर्जा प्रदान करता है।

भगतसिंह की यह स्पष्ट समझ थी कि जब वे फाँसी के फंदे में चढ़ जाएँगे तो देश भर में एक ज़बरदस्त साम्राज्यवाद विरोधी लहर उठेगी और देश जल्द ही आज़ाद हो जायेगा। लेकिन इस ख़तरे से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ थे कि गोरे साहबों के स्थान पर उसी चरित्र के काले साहेब तो कब्जा नहीं कर लेंगे? इसी कारण वे समाज के मूलभूत व्यवस्था परिवर्तन के पक्ष थे। समाजवाद की स्थापना ही मूल मकसद था और इंकलाब जिंदाबाद मुख्य नारा था।

आज देश की आज़ादी के लगभग 77 वर्षों बाद देश, सत्ता की उसी तानाशाही, जनविरोधी, दमनात्मक, कारपोरेट परस्त नीति और उसके अमानवीय चरित्र को बहुत ही गहराई से देख रहा है । पूंजीवाद और साम्राज्य वादी शक्तियां पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में कस रही है। धार्मिक उन्माद और छद्म राष्ट्रवाद चरम पर है। श्रमिक मजदूर किसान मध्यम वर्ग सब हाशिए में है। देश की सियासत और 85% से ज्यादा परिसंपदा पर लगभग पूंजीपतियों का कब्जा है। गरीब और अमीर की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को आत्मनिर्भरता के नाम पर उनके ही हाल में छोड़ दिया गया है। एक जनवादी लोकतन्त्र में सरकार की जनविरोधी नीतियों से असहमति व्यक्त करते हुए उन्हें वापस करवाने के लिये आंदोलन करना एक स्वाभाविक कर्म है। आज, उसी स्वाभाविक कर्म को राष्ट्रद्रोह और आतंकवाद करार दिया जा रहा है। संसद जैसे पवित्र मंच से स्वयं प्रधानमंत्री आंदोलनकारियो को आन्दोलनजीवी जैसी संज्ञा से संबोधित कर रहे हैं।

फांसी के फंदों को चूमने वाले शहीदों के सपनों का आजाद देश कैसा होना चाहिए इसे बताते हुए भगतसिंह ने कहा था;
“स्वतंत्रता तब नहीं होती जब शासन गोरे आदमी से भूरे आदमी के पास चला जाता है। यह केवल सत्ता का हस्तांतरण है। वास्तविक स्वतंत्रता तब होती है जब भूमि पर काम करने वाला व्यक्ति भूखा नहीं सोता है, जो व्यक्ति कपड़ों को बुनता है वह नग्न नहीं रहता है और जो व्यक्ति घर बनाता है वह बेघर नहीं रहता है।”
भगतसिंह की उसी क्रांति और शहीदों की धरती से कृषि संशोधन वाले काले क़ानून को चुनौती देते हुए किसानों ने सत्ता के निरंकुश रवैये को ललकारा है। भारत की फिजाओं में, “ भगत सिंह तू ज़िंदा है हर एक लहू के क़तरे में—”गीत गूंज रहा है।

भगत सिंह ने फांसी के पहले ही यह आशंका व्यक्त करते हुए क्रांतिकारियों और देश की आवाम को सचेत किया था कि;
“हमारी फांसी लगने के 15 वर्ष बाद अंग्रेज यहां से चला जायेगा क्योंकि उसकी जड़ें खोखली हो चुकी हैं। किंतु उसके चले जाने के बाद जो राज होगा वह लूट, स्वार्थ व गुंडा गर्दी का राज होगा। 15 साल तक लोग हमें (शहीदों) को भूल जायेंगे। फिर हमारी याद ताज़ा होनी शुरू होगी। लोग हमारे विचारों को परखेंगे और वास्तविक समाज के सृजन के लिए मेहनत कश व ईमानदार लोग एकत्र होंगे। ऐसे लोगों का समूह व संगठन परिश्रम लोगो को श्रम का फल चखायेगा।”

रणनीति में आदर्श और प्रेरणा के नाम पर शून्यता और देश और समाज, राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था का रुख कल्याणकारी राज से हटकर कारपोरेट परस्त हुआ है। लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राजनीति ही नहीं बल्कि पार्टी की राजनीति, चुनावी राजनीति, समझौता की राजनीति, सुविधा की राजनीति और अपमानित और धोखे की राजनीति देश की जीवन और राजनीति का तरीका बन गई। यह देखकर खुशी होती है कि – इसी अंतर्द्वंद्व के बीच किसानों के विरोध और आंदोलन ने एक बार फिर इस देश के स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के जीवन,सपने और कार्यों में प्राण फूंक दिये हैं।

निःसंदेह ऐसी परिस्थितियों में आज के नवजवानों को संकल्प लेना होगा। उन्हें भगतसिंह का उत्तराधिकारी बनना ही होगा। समाजवादी , वैज्ञानिक चेतना से युक्त शोषण रहित समाज व देश के निर्माण के लिए आगे आना ही होगा।

गणेश कछवाहा,
काशीधाम
रायगढ़, छत्तीसगढ़
gp.kachhwaha@gmail.com
9425572284

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