सांस्कृतिक धरोहर और विरासत –
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ‘ (23 सितम्बर 1908- 24 अप्रैल 1974)
23 सितंबर जयंती पर विशेष –
“जब-जब किसी देश की राजनीति लड़खड़ाती है, तब तब साहित्य उसे सहारा देता है।” – रामधारी सिंह दिनकर
********* गणेश कछवाहा / रायगढ़ ********
दिनकर की कविता इस समय भी उतनी ही प्रासंगिक मालूम होती है, जितनी कि उस दौर में जब वह लिखी गई थी. समय भले ही बदल गया हो लेकिन परिस्थितियां और अधिक जटिल तथा विपरितताओं से अधिक उलझी हुई है।साहित्य कला संस्कृति जब जनता और देश हित से दूर होकर राजदरबार की चौखट का चुंबन करे,शीश झुकाए और दरबान हो जाए या राजा का पट्टा गले में बांध कर घूमने में गर्व महसूस करे तब यह समझ लेना चहिए की खुली हवाओं को कैद करने का असफल प्रयास किया जा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में ‘ दिनकर ‘ जैसी तेवर, ऊर्जा, चिंतन और राष्ट्र निर्माण के साहित्य की जरूरत महसूस होती है। देश की दशा और दिशा सही चिंतन और विमर्श देने के साथ साथ इतना साहस तो होना चाहिए की संसद और संसद के बाहर आम नागरिक से लेकर देश के मुखिया के सामने सच कहने का साहस हो।और देश के मुखिया में भी इतनी समझ ,संवेदना और साहस होनी चाहिए कि वह “साहित्य समाज का दर्पण होता है ,इस भाव को हृदयंगम कर सके।
“रामधारीसिंह दिनकर जैसे महान साहित्य मनीषी का किसी भी साहित्य सम्मेलन में शिरकत करना बहुत गर्व की बात होती थी। तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी उन्हें बहुत सम्मान देते थे। एक बार काव्यपाठ के बाद जब पं. नेहरू और दिनकर अपने कुछ साथियों के साथ वापस लौट रहे थे। लौटते समय सीढ़ियों से उतरते वक्त अचानक पंडितजी का पैर फिसला और वे गिरते कि , इससे पहले ही दिनकर जी के कंधे पर हाथ रख कर अपने आप को संभाला और आभार व्यक्त करते हुए पं. नेहरू ने कहा – दिनकरजी शुक्रिया, आज आपके कारण मैं हादसे का शिकार होते-होते बच गया। मैत्री के ही भाव में दिनकर ने मुस्कराते हुए जवाब दिया – “कोई बात नहीं पंडितजी, जब-जब किसी देश की राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे सहारा देता है। साहित्य का धर्म है कि वह समाज को सही दिशा की ओर ले जाए।”
कविता जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे. ऐसा बहुत ही कम हिन्दी कविताओं में देखने को मिलता है. कुछ कवि जनकवि होते हैं तो कुछ राष्ट्रकवि और कुछ लोकप्रिय कवि होते है मगर एक कवि राष्ट्रकवि भी हो जनकवि और जनमानस के हृदय का लोकप्रिय कवि भी हो, यह सम्मान बहुत ही कम कवियों को मिल पाता है. रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं जिनकी कविताएं किसी अनपढ़ आम आदमी, किसान को भी उतनी ही पसंद है जितनी बुद्धिजीवियों या कि उन पर रिसर्च करने वाले स्कॉलर को.
दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया।
दिनकर’ जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। 1934 से 1947तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। 1950 से 1952 तक लंगट सिंह कालेज मुजफ्फरपुर में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे।1952 भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर 1963 से 1965 के बीच कार्य किया और 1965 से 1971 ई. तक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्होनें ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत जैसी बेजोड़ प्रसिद्ध रचना का सृजन किया। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं ब्रिटिश शासकों में बैचेनी बढ़ने लगी और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे।दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे कभी नहीं चूकते।रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे।कई बार उन्होंने तल्ख टिप्पणीयां कविताएं पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी।ऐसे राष्ट्र भक्त और क्रांतिकारी विचारक बिरले ही होते हैं। आज तो अंध भक्तों की होड़ सी लगी है।1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था. पूरे संसद में सन्नाटा सा छा गया था। यह घटना आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास में अविस्मरणीय है।ऐसा क्रांतिकारी जज्बा हौसला और राष्ट्र प्रेम का उदाहरण शायद इतिहास में एकाध हो।
प्रधानमंत्री नेहरू के समक्ष पढ़ी पंक्तियां-
“देखने में देवता सदृश्य लगता है
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है॥”
*”रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर
फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर”*।।
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दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। वे ओज,राष्ट्र प्रेम और छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था “दिनकरजी अहिंदी भाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।” रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा था “दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।” नामवर सिंह ने कहा है “दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।” प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा था कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया। प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ सिंह के अनुसार ‘दिनकर जी राष्ट्रियप्रेम के और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।’ हरिवंश राय बच्चन ने कहा था “दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।”
सम्मान
दिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।
मरणोपरान्त सम्मान
30 सितम्बर 1987 को उनकी 13वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। केंद्रीय सूचना और प्रसारण मन्त्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया।
उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य प्रतिमा का अनावरण किया। कालीकट विश्वविद्यालय में भी इस अवसर को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया।
दिनकर उन थोड़े कवियों में हैं, जिनकी कविताएं आज भी लोगों की जुबान पर आ जाती हैं. उनकी रचनाओं की लंबी सूची में से किसी न किसी रचना का नाम कोई भी जागरूक व्यक्ति आज भी बता देगा।
पाठको के लिए – महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की दो कविताऐं –——
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।।
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कलम या कि तलवार
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे
एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार।।
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24 अप्रैल, 1974 को उनका मद्रास में ही निधन हो गया।उन दिनों 24 घंटे वाले टेलीविजन चैनल नहीं थे. इसलिए 25 अप्रैल की सुबह आकाशवाणी और अखबारों से यह दुखद समाचार आया. उनका शव विमान से पहले दिल्ली और फिर वहां से पटना लाया गया. दिल्ली में भी साहित्यकारों व मित्रों न उन्हें हवाई अड्डे पर श्रद्धांजलि दी.राष्ट्र कवि के अंतिम दर्शन के लिए लोगों का तांता लग गया.पूरा परिवार ,साहित्यकारों राजनेताओं,के साथ साथ समूचा पटना वहां उमड़ पड़ा और पुलिस के जवानों ने लास्ट पोस्ट यानी अंतिम समय का बिगुल बजाया. पुत्र केदारनाथ सिंह ने मुखाग्नि दी.ऐसी विलक्षण प्रतिभा सांस्कृतिक धरोहर और विरासत के संरक्षण एवं संवर्धन की जरूरत है।
गणेश कछवाहा
चिंतक,लेखक एवं समीक्षक
काशीधाम,
रायगढ़, छत्तीसगढ़।
94255 72284
gp. Kachhwaha@gmail .com